Same Sex Marriage (समलैंगिक विवाह): Case Study [UPSC]

Same Sex Marriage in India: LGBTQ+ और उससे जुड़े मुद्दे हाल के वर्षों में भारत में एक ज्वलंत मुद्दा रहा है, या यूं कहें कि एक विवादित मुद्दा रहा है। भारतीय समाज इस पर दो धरों में बंटा नजर आता है, वैधानिक प्रावधान भी बहुत ज्यादा स्पष्ट नहीं है। ऐसे में अक्तूबर 2023 में सुप्रीम कोर्ट का एक निर्णय आता है जो कि बहुत चर्चा का विषय बनता है;

इस लेख में हम Same Sex Marriage (समलैंगिक विवाह) पर सरल एवं सहज चर्चा करेंगे एवं इसके विभिन महत्वपूर्ण पहलुओं को समझने का प्रयास करेंगे।

यह टॉपिक अपने आप में बहुत ही बड़ा है तो हमने इस लेख में इसे जितना हो सके इसे न्यूनतम शब्दों में समझने की कोशिश की है। इसे अंत तक पढ़ें आपको इससे जुड़ी सभी जरूरी चीज़ें समझ में आ जाएंगी।

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Same Sex Marriage | समलैंगिक विवाह
Same Sex Marriage Image by johnstocker on Freepik

📜 Same Sex Marriage (समलैंगिक विवाह)

समान-लिंग विवाह, जिसे Same Sex Marriage (समलैंगिक विवाह) या विवाह समानता के रूप में भी जाना जाता है, एक ही लिंग के दो व्यक्तियों के बीच एक विवाह है। यह दो लोगों के बीच एक कानूनी मिलन है, चाहे उनका लिंग कुछ भी हो।

संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, यूनाइटेड किंगडम और अधिकांश पश्चिमी यूरोप सहित दुनिया भर के कई देशों में समलैंगिक विवाह को मान्यता प्राप्त है। भारत इस मामले में अपना एक अलग रुख रखता है जिसे कि हम आगे समझने वाले हैं;

Same Sex Marriage (या समलैंगिक विवाह) के पक्ष में कई तर्क हैं। एक तर्क यह है कि यह एक मौलिक मानव अधिकार है। सभी लोगों को अपने लिंग की परवाह किए बिना, उस व्यक्ति से शादी करने का अधिकार होना चाहिए जिससे वे प्यार करते हैं। दूसरा तर्क यह है कि समलैंगिक विवाह समाज के लिए अच्छा है। यह परिवारों और समुदायों को मजबूत करता है।

आधुनिक समय में कानूनी रूप से विवाह करने वाले पहले समलैंगिक जोड़े 1971 में संयुक्त राज्य अमेरिका में माइकल मैककोनेल और जैक बेकर थे; उनका विवाह मिनेसोटा के ब्लू अर्थ काउंटी में हुआ था।

Same Sex Marriage (समलैंगिक विवाह) के ख़िलाफ़ भी कुछ तर्क हैं। एक तर्क यह है कि यह धार्मिक मान्यताओं के विरुद्ध है। कुछ धर्म सिखाते हैं कि विवाह केवल एक पुरुष और एक महिला के बीच होता है। दूसरा तर्क यह है कि समलैंगिक विवाह से बच्चों को नुकसान होगा। कुछ लोगों का मानना है कि बच्चों को माँ और पिता की ज़रूरत होती है। (ये सारी चीज़ें सही है या गलत, आगे आपको समझ में आ जाएगा।)

Same Sex Marriage (या समलैंगिक विवाह) के लिए आंदोलन व्यापक LGBTQ+ अधिकार आंदोलन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है।

LGBTQ+ Rights Movement (समलैंगिक अधिकार आंदोलन) क्या है?
LGBTQ+ अधिकार आंदोलन, जिसे अक्सर “समलैंगिक अधिकार आंदोलन” के रूप में जाना जाता है, एक सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन है जो समलैंगिक, उभयलिंगी, ट्रांसजेंडर, समलैंगिक और अन्य गैर-विषम मानक व्यक्तियों के अधिकारों और समानता की वकालत करता है।

यह आंदोलन भेदभाव, असमानता और पूर्वाग्रह के विभिन्न रूपों को संबोधित करना चाहता है जिनका LGBTQ+ लोगों ने ऐतिहासिक रूप से सामना किया है।

आधुनिक LGBTQ+ अधिकार आंदोलन को 1969 में न्यूयॉर्क शहर में हुए स्टोनवॉल दंगों से जोड़कर देखा जाता है। समलैंगिक बार पर पुलिस की छापेमारी के बाद हुए इन दंगों के बाद कई दिनों तक विरोध प्रदर्शन हुए जिसने एक आंदोलन का रूप ले लिया।

LGBTQ+ अधिकार आंदोलन के प्राथमिक लक्ष्यों में समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करना, रोजगार, आवास और सार्वजनिक आवास में भेदभाव को दूर करना, समलैंगिक संबंधों और विवाह को मान्यता देना और LGBTQ+ को बढ़ावा देना शामिल है।

पिछले कुछ वर्षों में, इस आंदोलन ने महत्वपूर्ण कानूनी सफलताएँ हासिल किए हैं, जैसे कि समलैंगिकता को अपराधमुक्त करना, भेदभाव-विरोधी कानून और विभिन्न देशों में समलैंगिक विवाह (Same Sex Marriage) की मंजूरी।

गौरव समारोह (Pride Celebrations): दुनिया भर के कई शहरों में गौरव कार्यक्रम और परेड के रूप में मनाया जाने वाला यह इवेंट, LGBTQ+ अधिकार आंदोलन का एक प्रमुख और दृश्यमान हिस्सा हैं। ये समारोह LGBTQ+ समुदाय के भीतर दृश्यता और एकता को बढ़ावा देते हैं।

Same Sex Marriage info Snippet

उपरोक्त आंदोलनों के कारण, कई देशों और क्षेत्रों ने समलैंगिक विवाह को वैध बनाने वाले कानून पारित किए हैं। हालाँकि, अभी भी ऐसे स्थान हैं जहाँ समलैंगिक विवाह बहस का विषय बना हुआ है, और इसकी कानूनी स्थिति दुनिया भर में व्यापक रूप से भिन्न है।

◾ समलैंगिक विवाह (Same Sex Marriage) को अनुमति देने या न देने का निर्णय सार्वजनिक नीति का मामला है। यह निर्णय लेना प्रत्येक समाज पर निर्भर है कि समलैंगिक विवाह को मान्यता दी जाए या नहीं। भारतीय समाज एवं राज्य अभी इसी दुविधापूर्ण स्थिति से गुजर रही है।

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा समलैंगिक विवाह को मंजूरी न देने के बाद इस विषय पर एक बार फिर चर्चा शुरू हो गई है ऐसे में हमारे लिए इसके सभी पहलुओं को समझना जरूरी हो जाता है; तो बिलकुल इत्मीनान से इसे पढ़िये और समझिए;

LGBTQ+ समुदाय कौन है?

LGBTQ+ समुदाय उन लोगों के एक विविध समूह का प्रतिनिधित्व करता है जो समलैंगिक, उभयलिंगी, ट्रांसजेंडर, या किसी अन्य यौन अभिविन्यास या लिंग पहचान के रूप में स्वयं को अभिव्यक्त करता है। यहां LGBTQ+ संक्षिप्त नाम के अंतर्गत मुख्य शब्दों का विवरण दिया गया है:

Same Sex Marriage समलैंगिक विवाह
Same Sex Marriage Image Credit – newsmeter.in

1. Lesbian (लेस्बियन):  यह टर्म उन महिलाओं को संदर्भित करता है जो अन्य महिलाओं के प्रति आकर्षित होती हैं, यौन रुझान रखती हैं। जैसे कि राष्ट्रीय स्प्रिंट चैंपियन दुती चंद अपने लेस्बियन साथी मोनालिसा दास के साथ रिलेशनशिप में है।

2. Gay (गे):  यह टर्म आमतौर पर उन पुरुषों का वर्णन करने के लिए उपयोग किया जाता है जो अन्य पुरुषों के प्रति आकर्षित होते हैं।

हालांकि यह याद रखिए कि कभी-कभी इसका उपयोग अधिक व्यापक रूप से उन सभी व्यक्तियों को शामिल करने के लिए किया जाता है जो एक ही लिंग के प्रति आकर्षित होते हैं।

3. Bisexual (उभयलिंगी): यह टर्म ऐसे व्यक्तियों को संदर्भित करता है जो पुरुषों और महिलाओं दोनों के प्रति आकर्षित होते हैं।

4. Transgender( ट्रांसजेंडर): ऐसे व्यक्ति जिसको जन्म के समय जो लिंग पहचान दी गई थी बड़ा होने पर वे खुद को भिन्न पाते हैं;

दूसरे शब्दों में कहें तो ट्रांसजेंडर शब्द उन लोगों के लिए प्रयोग किया जाता है जिनकी एक लैंगिक पहचान या अभिव्यक्ति उस लिंग से अलग होती है, जो उन्हें उनके जन्म के समय दी गई होती है।

5. Queer (क्वीर):  क्वीर उन लोगों के लिए एक व्यापक शब्द है जो विषमलैंगिक (heterosexual) नहीं हैं। मूल रूप से इसका मतलब होता है ‘अजीब‘।

19वीं सदी के अंत में समान-सेक्स इच्छाओं या रिश्ते वाले लोगों के खिलाफ इस शब्द का इस्तेमाल अपमानजनक रूप से किया जाने लगा। हालांकि 21वीं शताब्दी में LGBTQ समुदाय द्वारा इस शब्द को एक सम्मान के रूप में अपनाया गया।

6. Questioning:  ऐसे व्यक्ति जो अपनी स्वयं की यौन अभिविन्यास या लिंग पहचान की खोज कर रहे हैं। दरअसल इस समुदाय में एक प्रचलित विचार है कि लिंग वो होती है जो कि बाद में हम अपनाते हैं भले ही जैविक रूप से हम कुछ भी क्यों न हो।

💡 अब आप सोचेंगे कि इसके अंत में “+” प्लस सिम्बल क्यों लगा हुआ है। दरअसल बात ये है कि चीज़ें LGBTQ पर भी खत्म नहीं होती है बल्कि इसके अलावा भी अन्य कई शारीरिक एवं मानसिक अभिविन्यास वाले लोग है। आइये उस पर भी नजर डालते हैं;

Intersex – जब कोई व्यक्ति पुरुष और महिला के जैविक गुणों के संयोजन के साथ पैदा होता है, तो उसे Intersex (इंटरसेक्स) कहा जाता है।

Asexual – यह शब्द किसी ऐसे व्यक्ति का वर्णन करने के लिए उपयोग किया जाता है जो किसी भी लिंग के व्यक्तियों के प्रति यौन आकर्षण का अनुभव नहीं करता है।

इन्ही दोनों टर्म्स को जोड़कर कभी-कभी इस्तेमाल किया जाता है और कानूनी सुनवाई में भी इसका इस्तेमाल किया गया था – LGBTQIA;

हालांकि ये टर्म्स यही पे खत्म नहीं होता है बल्कि एक टर्म है Non-binary

Non-Binary – कोई व्यक्ति जो गैर-बाइनरी है, वह विशेष रूप से पुरुष या महिला के रूप में पहचान नहीं करता है। वे या तो महिला या पुरुष दोनों होते हैं या फिर दोनों ही में से कुछ भी नहीं होते हैं या फिर थोड़ा महिला, थोड़ा पुरुष होते हैं। उदाहरण के लिए, कोई व्यक्ति जो गैर-बाइनरी के रूप में पहचान करता है, वह कुछ खास दिनों में अधिक मर्दाना और अन्य दिनों में अधिक स्त्री जैसा महसूस कर सकता है।

Pansexual – इस कैटेगरी में आने वाले लोगों को सब पसंद होता है। उसके अंदर लिंग की परवाह किए बिना सबके प्रति रोमांटिक, भावनात्मक और यौन आकर्षण होता है। उसे महिला, पुरुष, मां, भाई, बहन व बच्चे सब के प्रति यौन आकर्षण होता है/हो सकता है।

LGBTQ+ समुदाय का उदय (Rise of LGBTQ Community):

LGBTQ समुदाय का इतिहास बहुत ही प्राचीन है। हालांकि उस समय यह टर्म इस्तेमाल नहीं किया जाता था लेकिन समान-लिंग प्रेम (same-sex love) और उस पर आधारित कामुकता हमेशा से विश्व के लगभग सभी संस्कृतियों का हिस्सा रहा है और इसका लिखित इतिहास भी मिलता है।

लेकिन आमतौर पर यह एक गोपनियता का विषय रहा है और मुख्य धारा की समाज में इसकी स्वीकृति को लेकर हमेशा विवाद रहा है।

हालांकि हम भारत की स्थिति को इससे अलग पाते हैं, तृतीयलिंग, उभयलिंग नपुंसकलिंग जैसे शब्दावली (यहां तक की व्याकरण में) इन लोगों के लिए प्रचलित रहा है। और इन समुदायों को भारतीय समाज में हमेशा एक स्थान मिली है।

भारतीय समाज में इन समुदायों की स्वीकृति का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि कई धार्मिक प्रसंगों में भगवान को इस रूप में कल्पित किया गया है इसके अलावा महाभारत के कुछ प्रसंग भी इसको बल प्रदान करते हैं।

वक्त बदला, हालात बदले, भूगोल बदला, और सबसे बड़ी बात नजरिया बदला। विश्व के अधिकांश देशों ने उदारवादी लोकतंत्र (liberal democracy) को अपनाया, एक ऐसा तंत्र जिसमें लोगों के पास असीम अधिकारें थी व सत्ता बदलने की क्षमता थी।

उदारवाद, अतिउदारवाद में बदला और फिर उसकी जगह वोकिज़्म (Wokeism) ने ली। ट्रान्सजेंडर या तृतीयलिंग जो कभी समाज में एक सम्मानजनक जगह बनाने के लिए संघर्ष करते थे अब उसने न केवल अपनी जगह बनाई बल्कि अपने जैसे लोगों की खोज में उसने कई नई पहचानें (identity) बना दी। और इसी Identity के लिए एक Umbrella टर्म गढ़ा गया – LGBTQ+

Wokeism क्या है?
वोकेइज़्म एक वास्तविक सामाजिक चिंता का मुखौटा पहने हुए व्यक्तिगत शिकायतों को हथियारबंद करना है। इसे इसकी कपटपूर्ण प्रकृति द्वारा परिभाषित किया गया है, जो वैध सामाजिक शिकायतों से अलग है।
Wokeism केवल आक्रोश जानता है – यह पीड़ितों के प्रति सहानुभूति नहीं जानता है। – Fairport Educational Alliance
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1994 का साल था जब अमेरिका में एलजीबीटी हिस्ट्री मंथ मनाने की शुरुआत हुई। दरअसल एलजीबीटी हिस्ट्री मंथ LGBTQ द्वारा हर साल एक महीने भर चलने वाला उत्सव है, जिसका संबंध इस समुदाय से संबंधित नागरिक अधिकारों से हैं।

इसकी स्थापना 1994 में मिसौरी हाई-स्कूल के इतिहास शिक्षक रॉडनी विल्सन द्वारा की गई थी। एलजीबीटी हिस्ट्री मंथ रोल मॉडल प्रदान करता है, समुदाय का निर्माण करता है और एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के नागरिक अधिकारों के लिए आवाज उठाता है।

धीरे-धीरे यह ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, क्यूबा, फिनलैंड, जर्मनी, हंगरी, इटली, यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका आदि देशों में फैला और जैसे-जैसे इनकी आवाज बुलंद होती गई इनकी मांगें भी बढ़ती गई जिनमें से कुछ मांगे जरूर उचित थी पर कई मांगे बस प्रभुत्व के लिए था।

और भारत भी इससे अछूता नहीं रहा, इसी समय के आस-पास भारत में भी मुखर होकर इसके प्रति आवाज उठाई जाने लगी (इसके बारे में हम आगे समझेंगे);

कुल मिलाकर 5 कारणों ने  LGBTQ समुदाय के उदय (Rise) को सुनिश्चित किया; 

1. सक्रियता और वकालत (Activism and Advocacy): LGBTQ + अधिकार आंदोलन, जिसे अक्सर समलैंगिक अधिकार आंदोलन के रूप में जाना जाता है, जागरूकता बढ़ाने और समान अधिकारों के लिए लड़ने में एक प्रेरक शक्ति रहा है।

कार्यकर्ताओं और संगठनों ने कानूनी और सामाजिक परिवर्तन को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, जिसमें समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करना, भेदभाव-विरोधी कानून और विवाह समानता शामिल हैं।

इसका फायदा भी मिला है कई देशों, राज्यों और क्षेत्रों ने एलजीबीटीक्यू+ व्यक्तियों को कानूनी सुरक्षा और मान्यता प्रदान करने के लिए अपने कानूनों में सुधार किया है।

2. मीडिया एवं सोशल मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका (Important Role of Media and Social Media): मीडिया ने एलजीबीटीक्यू+ व्यक्तियों को अधिक विविध और सकारात्मक तरीके से प्रतिनिधित्व करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। फिल्मों, टेलीविजन और साहित्य में एलजीबीटीक्यू+ पात्रों को शामिल करने से उनके अनुभवों को सामान्य बनाने और सहानुभूति और समझ को बढ़ावा देने में मदद मिली है।

इसके अलावा इंटरनेट और सोशल मीडिया ने एलजीबीटीक्यू+ व्यक्तियों को वैश्विक स्तर पर अपनी कहानियों और अनुभवों को जोड़ने, व्यवस्थित करने और साझा करने में सक्षम बनाया है। ऑनलाइन समुदाय सहायता, शिक्षा और सक्रियता के लिए एक मंच प्रदान करते हैं।

3. सार्वजनिक हस्तियों का खुल के सामने आना (Visibility of Public Figures): कई हाई-प्रोफाइल हस्तियां और सार्वजनिक हस्तियां एलजीबीटीक्यू+ के रूप में सामने आई हैं, जो जागरूकता बढ़ाने और स्वीकार्यता को बढ़ावा देने के लिए अपने प्लेटफार्मों का उपयोग कर रही हैं। इससे कलंक और रूढ़िवादिता को कम करने में मदद मिली है।

4. शिक्षा और जागरूकता: शैक्षणिक संस्थानों ने एलजीबीटीक्यू+ मुद्दों को अपने पाठ्यक्रम में तेजी से शामिल किया है, जिससे युवा पीढ़ी के बीच अधिक समझ और स्वीकार्यता बढ़ी है। कई स्कूलों ने LGBTQ+ सहायता समूह और पहल स्थापित की हैं। अमेरिका जैसे लिबरल सोसाइटी में तो कई स्कूलों में LGBTQ समर्थित इंग्लिश ग्रामर पढ़ाया जाता है। जिसके तहत आमतौर पर He, She या Mother-Father जैसे concept को हतोत्साहित किया जाता है।

5. पीढ़ीगत परिवर्तन: युवा पीढ़ी एलजीबीटीक्यू+ व्यक्तियों को अधिक स्वीकार करती है, और इस पीढ़ीगत बदलाव ने अधिक समग्र स्वीकृति और समझ में योगदान दिया है।

कुल मिलाकर लिंग पहचान और अभिव्यक्ति की कानूनी मान्यता और सुरक्षा पर जोर देते हुए, ट्रांसजेंडर अधिकार आंदोलन ने गति पकड़ ली है। और कई कानूनी या सामाजिक-सांस्कृतिक मामलों में इन समुदायों को अभूतपूर्व सफलता मिली है।

और भारत इससे अलग नहीं है। भारत में भी इस समुदाय को कई मोर्चों पर सफलता मिली है। हॉलीवुड की फिल्मों की तरह भारत में भी अब LGBTQ आधारित सिनेमा बनने लगी है। नीति निर्धारण करने वाले पदों पर इन समुदायों का प्रतिनिधित्व बढ़ा है। संसद और सुप्रीम कोर्ट के निर्णय इन समुदायों के पक्ष में जाने लगे हैं, इत्यादि। आइये भारत में इसके कुछ अन्य पहलुओं को समझें;

भारत में समलैंगिकता (Homosexuality in India):

जैसा कि हमने ऊपर भी समझा है कि भारत में समलैंगिकों के लिए हमेशा से एक स्थान रहा है, और भारत में उसने संरक्षण भी पाया है, फलता-फूलता किन्नर समाज इसका उदाहरण है। हालांकि यह भी सच है कि सामान्य कार्य-व्यवहार में इस समाज को उस तरह से स्वीकृति नहीं मिली जैसे कि किसी सामान्य व्यक्ति को मिलता है।

मुख्य समाज से अलग रहने के बावजूद भी यह समाज का हिस्सा रहा है या यूं कहें कहें समाज का हिस्सा होने के बावजूद भी यह हमेशा समाज से अलग रहा है; और इसके पीछे कई कारण है, जिसे समझना जरूरी है?

मुख्यधारा के भारतीय समाज में समलैंगिकता की मान्यता और स्वीकृति की कमी को कई कारकों के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जिनमें शामिल हैं:

1. सामाजिक, सांस्कृतिक व  पारंपरिक मानदंड (Social, Cultural & Traditional Norms):  भारत में रूढ़िवादी सांस्कृतिक और पारंपरिक मानदंडों का एक लंबा इतिहास रहा है, जिसमें अक्सर विषमलैंगिक विवाह (heterosexual marriage) और प्रजनन पर जोर दिया गया है।

एक बहुत ही स्पष्ट एवं दृढ़ धारणा है कि विषमलैंगिक विवाह प्राकृतिक है, क्योंकि किसी महिला एवं पुरुष के भीतर विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण ही वो चीज़ ही जो कि नए अस्तित्व का निर्माण कर सकती है और इस सृष्टि को चलायमान बनाए रख सकती है।

भारत में विवाह नामक जो एक सामाजिक व सांस्कृतिक संस्था का निर्माण हुआ है वो मूलतः विषमलैंगिकता (Heterosexuality) पर आधारित है। इसीलिए कई पारंपरिक भारतीय समाज, धार्मिक और सामाजिक मानदंडों से प्रभावित होकर, समलैंगिक संबंधों को अपरंपरागत मानते हैं।

2. सामाजिक कलंक और भेदभाव (Social Stigma and Discrimination): अपने अस्तित्व को कायम रखने या उसको मायने देने का एक बहुत ही आसान और प्राकृतिक तरीका है, वंश वृद्धि करना। वंश वृद्धि हो सके इसके लिए विषमलैंगिक संबंध आवश्यक है। ऐसे में जब किसी परिवार, कुल या समाज के अंदर एक ऐसा बच्चा पैदा होता है जिसका लिंग विकृत है या प्राकृतिक नहीं है तो फिर उसके प्रति नजरिया बदल जाता है।

या फिर कई बार जब यौवनावस्था में आने के बाद कोई व्यक्ति अपने लिंग से विपरीत व्यवहार करता है, तो फिर उसके प्रति समाज का नजरिया बदल जाता है। कई मामलों में उसे एक कलंक की तरह देखा जाने लगता है और इस तरह से भेदभाव का एक बिलकुल ही अलग स्वरूप सामने आता है जिसे कि आमतौर पर भेदभाव समझा नहीं जाता है।

इस तरह के भेदभाव से बचने के लिए कई लोग अपने यौन रुझान या लिंग पहचान के बारे में खुलकर कभी भी बात नहीं करता।

3. धार्मिक मान्यताएँ (Religious Belief): भारत अनेक धर्मों और विश्वास प्रणालियों वाला एक विविधतापूर्ण देश है। हिन्दू धर्म, धर्म/पंथ की दृष्टि से इस मामले में अन्य विदेशी पंथों के मुक़ाबले बहुत ही ज्यादा सहिष्णु और उदार रहा है।

वैदिक काल से ही हिंदू धर्म में “तीसरे लिंग” को स्वीकार किया गया है। और साथ ही संभोग को भी योनि संभोग (vaginal intercourse) और अयोनि संभोग (Non-vaginal intercourse) के रूप में विभाजित किया है।

कई हिंदू ग्रंथ, जैसे मनु स्मृति और सुश्रुत संहिता, इस बात को स्वीकार करते हैं कि कुछ लोग प्राकृतिक तौर पर मिश्रित पुरुष या महिला स्वभाव के साथ पैदा होते हैं, या यौन रूप से नपुंसक होते हैं।

इस मामले में ऋग्वेद से अक्सर एक उद्धरण दिया जाता है कि “जो अप्राकृतिक है वो भी प्राकृतिक ही है”। कामसूत्र में किन्नरों या “तीसरे लिंग” पुरुषों द्वारा पुरुषों पर मुख मैथुन (oral sex) करने का वर्णन मिलता है। खजुराहों के मंदिर पर हमें इस तरह की कई मूर्तियां मिलती है।

अब्राहिमिक रिलीजन (क्रिश्चियन, यहूदी एवं इस्लाम) की बात करें तो समलैंगिकता एक पाप है। इस्लाम में तो यहां तक कहा गया है कि समलैंगिक व्यक्ति अल्लाह की नजरों में गिर जाता है और अल्लाह उसे माफ नहीं करता। उसे इस्लामिक कानून के हिसाब से सजा दी जा सकती है। ( 1tamilmvcon)

मुगल साम्राज्य के दौरान, पहले से मौजूद दिल्ली सल्तनत के कई कानूनों को जोड़कर फतवा-ए-आलमगिरी की रचना की गई, जिसके तहत समलैंगिकता के लिए कई प्रकार की सजाओं को अनिवार्य किया गया। इनमें गुलाम के लिए 50 कोड़े, आज़ाद काफ़िर के लिए 100 कोड़े, या मुसलमान के लिए पत्थर मारकर मौत की व्यवस्था की गई।

ये टॉपिक बहुत ही विवादित और विस्तृत है लेकिन इतना समझिए कि हिंदू धर्म में अयोनि सेक्स को (जिसमें मौखिक और गुदा सेक्स शामिल है) को कभी भी अब्राहिमिक रिलीजन की तरह पाप के रूप में नहीं देखा गया और न ही इसे गंभीर अपराध के रूप में देखा गया।

4. शिक्षा और जागरूकता की कमी: भारत के कई हिस्सों में, LGBTQ+ मुद्दों के बारे में शिक्षा और जागरूकता की कमी है। यह अज्ञानता LGBTQ+ व्यक्तियों के प्रति पूर्वाग्रह और भेदभाव को जन्म दे सकती है और रूढ़िवादिता को मजबूत कर सकती है।

5. औपनिवेशिक प्रभाव (Colonial Influence): भारत में समलैंगिकों का मुख्य समाज से अलग रहने का यह एक बहुत ही बड़ा कारण है, और  इसकी वजह रही है IPC की धारा 377।

साल 1860 में अंग्रेजों ने भारतीय दंड संहिता (IPC) को लागू किया और इसमें धारा 377 को सम्मिलित किया जिसके तहत सभी अप्राकृतिक यौन कृत्यों को अपराध घोषित कर दिया।

और इस तरह से इस कानून का इस्तेमाल समलैंगिक गतिविधियों के साथ-साथ मौखिक और गुदा सेक्स में शामिल लोगों पर मुकदमा चलाने के लिए किया गया।

प्रकृति विरुद्ध अपराध (Unnatural offences)
IPC Section 377 – Whoever voluntarily has carnal intercourse against the order of nature with any man, woman or animal, shall be punished with imprisonment for life, or with imprisonment of either description for a term which may extend to ten years, and shall also be liable to fine.

Explanation.—Penetration is sufficient to constitute the carnal intercourse necessary to the offence described in this section.

भारतीय दंड संहिता धारा 377 – जो भी कोई किसी पुरुष, स्त्री या जीवजन्तु के साथ प्रकॄति की व्यवस्था के विरुद्ध स्वेच्छा पूर्वक संभोग करेगा तो उसे आजीवन कारावास या किसी एक अवधि के लिए कारावास जिसे दस वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है से दण्डित किया जाएगा और साथ ही वह आर्थिक दण्ड के लिए भी उत्तरदायी होगा।

स्पष्टीकरण–इस धारा में वर्णित अपराध के लिए आवश्यक संभोग संस्थापित करने के लिए प्रवेशन पर्याप्त है।

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हालांकि समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करने के लिए भारत में महत्वपूर्ण कानूनी विकास हुए हैं, जैसे कि 2018 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा धारा 377 को पलटना, लेकिन कानूनी चुनौतियां अभी भी जारी हैं, और समलैंगिक विवाह एवं दत्तक ग्रहण (Adoption) उसी कानूनी चुनौतियों में से सबसे बड़ी चुनौतियां हैं जिसपर देशभर में एक विवाद की स्थिति बनी हुई है। हम इसी को समझने वाले हैं;

| LGBT rights & Movements in India:

IPC की धारा 377 को निरस्त करने का आंदोलन 1991 में एड्स भेदभाव विरोधी आंदोलन के रूप में शुरू किया गया था। इन्होने ने ही एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसमें इन्होने धारा 377 की समस्याओं के बारे में बताया और इसे निरस्त करने की मांग की।

यह मामला वर्षों तक चलता रहा, पर इसमें जान डालने का काम किया नाज फ़ाउंडेशन ने। नाज़ फाउंडेशन (इंडिया) ट्रस्ट ने साल 2002 में दिल्ली उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की, जिसमें सहमति से किए गए समलैंगिक संभोग को वैध बनाने की मांग की गई।

साल 2003 में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने कानून की वैधता के संबंध में इस याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया और कहा कि याचिकाकर्ताओं का इस मामले में कोई अधिकार नहीं है।

याचिका खारिज करने के हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ नाज फाउंडेशन ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की. सुप्रीम कोर्ट ने फैसला किया कि नाज़ फाउंडेशन के पास इस मामले में जनहित याचिका दायर करने का अधिकार है और मामले को योग्यता के आधार पर पुनर्विचार करने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय में वापस भेज दिया।

इस बीच कई अन्य लोगों व संस्थाओं का भी इस मुहिम को सपोर्ट मिला जैसे कि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के दिल्ली स्थित गठबंधन ‘वॉयस अगेंस्ट 377′ द्वारा मामले में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किया गया, रितु डालमिया ने भी इसमें सक्रियता दिखाई, इत्यादि।

इस सब में एक नाम बहुत प्रचलित हुआ, वो है नवतेज सिंह जौहर, जो कि एक पत्रकार सुनील मेहरा से समलैंगिक संबंध में थे।

◾ मई 2008 में, मामला दिल्ली उच्च न्यायालय में सुनवाई के लिए आया, लेकिन सरकार अपनी स्थिति को स्पष्ट नहीं कर पा रही थी। भारतीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने इस याचिका का समर्थन किया, जबकि गृह मंत्रालय ने ऐसे कदम का विरोध किया।

अंततः 2 जुलाई 2009 को  Naz Foundation v National Capital Territory of Delhi मामले में दिए गए एक ऐतिहासिक फैसले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने 150 साल इस पुरानी धारा को पलट दिया और वयस्कों के बीच सहमति से समलैंगिक गतिविधियों को वैध कर दिया।

उच्च न्यायालय के दो जजों की बेंच ने इसे रद्द करते हुए कहा कि यह धारा नागरिकों के मौलिक अधिकार के खिलाफ है। न्यायालय ने माना कि धारा 377 ने वयस्कों के बीच सहमति से गैर-योनि यौन कृत्यों को जिस हद तक अपराध ठहराया है, इसने कानून के समक्ष समानता, भेदभाव से मुक्ति और अनुच्छेद 14, 15 और 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया है।

हालांकि यहां यह याद रखिए कि उच्च न्यायालय ने धारा 377 को पूरी तरह से रद्द नहीं किया। इसने इस धारा को बिना सहमति के गैर-योनि संभोग या नाबालिगों के साथ संभोग के मामले में वैध माना, और यह आशा व्यक्त की कि संसद विधायी रूप से इस मुद्दे को संबोधित करेगी।

उच्च न्यायालय के इस फैसले को ज्योतिषी सुरेश कुमार कौशल सहित कई अन्य लोगों ने उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई और इस मामले को सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की बेंच ने Suresh Kumar Koushal vs Naz Foundation मामले के तहत सुनी।

इस दो-न्यायाधीश पीठ ने दिल्ली उच्च न्यायालय के नाज फाउंडेशन बनाम NCT सरकार 2009 के मामले को पलट दिया और धारा 377 को पुनः बहाल कर दिया।

◾ सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को बहुत ही ज्यादा आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों के एक समूह द्वारा इसकी आलोचना की गई क्योंकि उनके हिसाब से धारा 377 LGBTQ व्यक्तियों को यह महसूस कराता है कि वे “अपराधी” हैं।

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार प्रमुख नवी पिल्लै ने इस निर्णय पर अपनी निराशा व्यक्त की। प्रमुख हिंदू आध्यात्मिक नेता रविशंकर ने  धारा 377 की निंदा की और कहा है कि “हिंदू धर्म ने कभी भी समलैंगिकता को अपराध नहीं माना है” और “यौन पसंद के आधार पर किसी व्यक्ति को अपराधी करार देना बेतुका होगा”

◾ इसी तरह से संयुक्त राष्ट्र ने भी भारत में समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर करने का आग्रह किया।

हालांकि कई लोगों ने इस निर्णय का समर्थन भी किया जैसे कि समाजवादी पार्टी ने धारा 377 के बचाव में कहा कि समलैंगिकता अनैतिक है।

भारतीय जनता पार्टी के नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने कहा कि समलैंगिकता कोई सामान्य बात नहीं है और यह हिंदुत्व के खिलाफ है. उन्होंने आगे कहा कि यह “हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा” है।

◾ इतना विरोध होते देख तत्कालीन सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने संसद से धारा 377 को हटाने के लिए कहा।

हालांकि ऐसा हो नहीं पाया क्योंकि सरकार बदल गई और भाजपा सत्ता में आई। और पिछली घटनाओं के कारण भाजपा के समक्ष भी यह संकट था कि धारा 377 को संशोधित या खत्म कर दिया जाए की नहीं।

भाजपा ने अपनी तरफ से पहल करके इसे छेड़ना उचित नहीं समझा और उसने जुलाई 2014 में, लोकसभा को बताया कि आईपीसी की धारा 377 के संबंध में कोई भी निर्णय सुप्रीम कोर्ट द्वारा फैसला सुनाए जाने के बाद ही लिया जा सकता है। कुल मिलाकर अब फैसला सुप्रीम कोर्ट को लेना था।

◾ हालांकि यहां यह याद रखिए कि सुप्रीम कोर्ट के 2013 के फैसले के खिलाफ नाज फ़ाउंडेशन और कई अन्य लोगों द्वारा Review Petition डाला गया था लेकिन 28 जनवरी 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 377 पर अपने 11 दिसंबर 2013 के फैसले के खिलाफ केंद्र सरकार, नाज़ फाउंडेशन और कई अन्य लोगों द्वारा दायर समीक्षा याचिका को खारिज कर दिया।

हालांकि नाज फ़ाउंडेशन ने हार नहीं मानी और उसने आखिरी रास्ता अपनाया वो था सुधारात्मक याचिका या Curative Petition का। 2 फरवरी 2016 को नाज़ फाउंडेशन और अन्य द्वारा प्रस्तुत सुधारात्मक याचिका की अंतिम सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के लिए आई।

सुधारात्मक याचिका या Curative Petition
Curative Petition भारत के सर्वोच्च न्यायालय में उसके अंतिम निर्णय या आदेश की समीक्षा और पुनर्विचार करने के लिए दायर की गई एक याचिका है। यह उस पक्ष के लिए उपलब्ध अंतिम उपाय है जिसके लिए समीक्षा याचिका (review petition) सहित अपील के अन्य सभी रास्ते बंद कर दिए हैं।
Same Sex Marriage info Snippet

भारत के मुख्य न्यायाधीश टी.एस. ठाकुर की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने कहा कि प्रस्तुत सभी 8 सुधारात्मक याचिकाओं की पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ द्वारा नए सिरे से समीक्षा की जाएगी।

जनवरी 2015 में, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने कहा कि 2013 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अक्टूबर 2014 तक आईपीसी की धारा 377 के तहत 778 मामले दर्ज किए गए और 587 गिरफ्तारियां की गईं।

18 दिसंबर 2015 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य शशि थरूर ने लोकसभा में भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को अपराधमुक्त करने के लिए एक निजी सदस्य विधेयक पेश किया, लेकिन सदन ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया।

12 मार्च 2016 को, थरूर ने एक बार फिर धारा 377 को अपराधमुक्त करने के लिए एक निजी सदस्य विधेयक पेश किया। और फिर से यह प्रस्ताव ठुकरा दिया गया।

24 अगस्त 2016 को वाणिज्यिक सरोगेसी पर प्रतिबंध (Ban on commercial surrogacy) के लिए एक ड्राफ्ट कानून बीजेपी सरकार द्वारा लाया गया और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज द्वारा इसकी घोषणा की गई।

लेकिन इस विधेयक के मसौदे में समलैंगिकों को सरोगेट बच्चे पैदा करने के अधिकार से वंचित कर दिया गया, जिसमें स्वराज ने कहा, “हम लिव-इन और समलैंगिक संबंधों को मान्यता नहीं देते… यह हमारे लोकाचार के खिलाफ है”।

◾ इसी बीच एक मामला आया पुत्तुस्वामी का मामला जिसके तहत निजता के अधिकार को अनुच्छेद 21 के तहत जीवन जीने का मौलिक अधिकार माना गया।

इस मामले में 9 जजों की पीठ बैठी थी जिसमें से एक स्वयं जस्टिस चंद्रचूड़ भी था और इसी मामले में इन्होने यह माना कि सुरेश कौशल वाले मामले (2013) फैसले के पीछे का तर्क गलत है।

सुप्रीम कोर्ट ने माना कि “यौन अभिविन्यास गोपनीयता का एक अनिवार्य गुण है”। फैसले में कहा गया, “यौन अभिविन्यास के आधार पर किसी व्यक्ति के खिलाफ भेदभाव व्यक्ति की गरिमा और आत्म-मूल्य के लिए गहरा अपमानजनक है।

इसी मामले में जस्टिस कौल जो कि जस्टिस चंद्रचूड़ के विचारों से सहमति रखते थे ने कहा कि बहुसंख्यकवादी अवधारणा संवैधानिक अधिकारों पर लागू नहीं होती है और अदालतों को अक्सर भारत के संविधान के तहत परिकल्पित शक्ति के नियंत्रण और संतुलन में गैर-बहुसंख्यकवादी दृष्टिकोण के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।

इस निर्णय से यह स्पष्ट हो चुका था कि सुप्रीम कोर्ट अब धारा 377 को गैर-आपराधिक घोषित करने जा रही है।

◾ 6 सितंबर 2018 को, सुप्रीम कोर्ट सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने (जिसकी अध्यक्षता जस्टिस दीपक मिश्रा कर रहे थे और इस बेंच में DY Chadrachud भी शामिल था) Navtej Singh Johar v. Union of India मामले में सहमति से समलैंगिक गतिविधियों को अपराध मानने वाले ब्रिटिश काल के प्रावधान धारा 377 के हिस्से को रद्द कर दिया।

हालांकि अदालत ने माना कि नाबालिगों और जानवरों के साथ अप्राकृतिक यौन संबंध को अपराध मानने वाली धारा 377 के अन्य पहलू लागू रहेंगे।

तो इस निर्णय से अप्राकृतिक यौन संबंध (unnatural sex) बनाना वैध हो गया। अब जब ये हो गया तो LGBTQ समुदाय की अगली मांग थी विवाह का दर्जा एवं गोद लेने को कानूनन वैध बनाया जाए।

तो सबसे पहले तो हम ये समझेंगे कि समलैंगिक विवाह क्या है और इसकी वैधता की मांग LGBTQ समुदाय द्वारा क्यों की जा रही है?

Same Sex Marriage (समलैंगिक विवाह) क्या है?

Same Sex Marriage (समलैंगिक विवाह)
Same Sex Marriage Image Credit Image by macrovector on Freepik

आमतौर पर हम जिस विवाह से परिचित है उसमें दो व्यक्ति होता है और दोनों का लिंग एक दूसरे के विपरीत होता है। लेकिन समलैंगिक विवाह एक ऐसा विवाह है जिसमें एक ही लिंग के दो लोगों का विवाह होता है। 2023 तक, 34 देशों में समान-लिंग वाले जोड़ों के बीच विवाह को कानूनी मान्यता प्राप्त है।

दरअसल विवाह एक सामाजिक स्वीकृति है जो दो लोगों को साथ रहने और अपनी कामेच्छा को पूरा करने का अवसर देता है। वो भी इस उम्मीद के साथ कि उसके द्वारा ऐसा करने से एक नया जीव अस्तित्व में आएगा।

सामाजिक मान्यताओं का अपना एक महत्व होता है और यह जीवन में स्थिरता प्रदान करता है। और LGBTQ समुदाय को भी यह चाहिए था ताकि गैर-योनिक संबंध (non-vaginal Intercourse) का सामान्यीकरण हो सके।

◾ विवाह करने के अधिकार को भारतीय संविधान के तहत मौलिक या संवैधानिक अधिकार के रूप में स्पष्ट रूप से मान्यता नहीं दी गई है, हालाँकि विवाह को विभिन्न वैधानिक अधिनियमों के माध्यम से विनियमित किया जाता है, जैसे कि हिन्दू विवाह अधिनियम, विशेष विवाह अधिनियम एवं विदेशी विवाह अधिनियम इत्यादि।

हालांकि यहां यह जानना जरूरी है कि Shafin Jahan v. Asokan K.M. and others 2018 मामले में मानव अधिकार की सार्वभौम घोषणा के अनुच्छेद 16 और पुट्टास्वामी मामले का जिक्र करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अपनी पसंद के व्यक्ति से शादी करने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 का अभिन्न अंग है।

भारतीय संविधान में अनुच्छेद 16 (2) में प्रावधान है कि केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, वंश, जन्म स्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता है। विवाह का अधिकार उस स्वतंत्रता में अंतर्निहित है जिसे संविधान एक मौलिक अधिकार के रूप में गारंटी देता है।

◾ इसी तरह से  Navtej Singh Johar v. Union of India मामले 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि एलजीबीटीक्यू समुदाय के सदस्य, “अन्य सभी नागरिकों की तरह, संविधान द्वारा संरक्षित स्वतंत्रता सहित संवैधानिक अधिकारों की पूरी श्रृंखला के हकदार हैं” और समान नागरिकता और “कानून के समान संरक्षण” के हकदार हैं।

◾ भारत में समलैंगिक विवाह की वकालत 1990 के दशक में एबीवीए (एड्स भेदभाव विरोधी आंदोलन) के दौरान ही सामने आई। एबीवीए (एड्स भेदभाव विरोधी आंदोलन) ने 1991 में अपनी रिपोर्ट “less than gay” में इस विषय को संबोधित किया था।

◾ साल 2000 में, लेखिका रूथ वनिता ने अपनी पुस्तक “सेम-सेक्स लव इन इंडिया: रीडिंग्स फ्रॉम लिटरेचर एंड हिस्ट्री” में पिछले तीन दशकों में हुए दर्जनों समान-लिंग, सामान्य-कानून विवाह और आत्महत्याओं का विश्लेषण किया, और उनकी धार्मिक और ऐतिहासिक पहलू की कानूनी जांच की।

उन्होंने तर्क दिया कि कई विवाहों को यकीनन कानूनी रूप से वैध माना जा सकता है, क्योंकि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत दो हिंदुओं के बीच दोनों भागीदारों में से एक के समुदाय में प्रचलित रीति-रिवाजों के अनुसार किया गया कोई भी विवाह कानूनी रूप से वैध होता है।

विवाह करने के लिए किसी लाइसेंस की आवश्यकता नहीं होती है, और आज भारत में अधिकांश विषमलैंगिक हिंदू विवाह (Heterosexual Hindu Marriage) लाइसेंस के बिना केवल धार्मिक संस्कारों द्वारा किए जाते हैं और राज्य के साथ कभी भी पंजीकृत नहीं होते हैं।

क्योंकि अधिकांश जोड़े परिवार और समुदाय की मान्यता चाहते हैं न कि राज्य की। और यही मान्यता LGBTQ+ समुदाय भी चाहते हैं;

तो सवाल ये है कि जब इनको मान्यता नहीं मिली हुई है तो फिर ये लोग एक साथ रहते कैसे हैं?

दरअसल इसे कहते हैं “लिव-इन रिलेशनशिप”। इस रिलेशनशिप में जोड़े एक-दूसरे से शादी नहीं करते हैं बल्कि एक साथ रहने वाले जोड़े के रूप में रहते हैं।

भारतीय समाज में लिव-इन संबंधों को वर्जित माना जाता है, लेकिन औपचारिक विवाह की प्रतिबद्धताएं और एक जोड़े के रूप में आत्मीय रिश्ता निभाना युवा वर्ग को अब अच्छा नहीं लगता इसीलिए युवा आबादी में यह धीरे-धीरे आम हो गया है। क्योंकि युवा वर्ग को लगता है लिव-इन रिलेशनशिप Sex Exploration का एक अच्छा साधन है।

विवाह के विपरीत, लिव-इन रिश्ते कानून द्वारा विनियमित नहीं होते हैं। कोई भी कानून लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले पक्षों के लिए अधिकार, लाभ और प्रतिबद्धताएं निर्धारित नहीं करता है। ये भी कारण था कि LGBTQ समुदाय को विवाह व्यवस्था चाहिए थी।

हालांकि यहां यह याद रखिए कि सामाजिक रूप से लिव-इन रिलेशनशिप मान्य नहीं है लेकिन 2010 में एस. खुशबू बनाम कन्नियाम्मल मामले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि लिव-इन रिलेशनशिप भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार के दायरे में आता है। अदालत ने आगे कहा कि लिव-इन रिलेशनशिप स्वीकार्य है और एक साथ रहने वाले दो लोगों के कृत्य को अवैध या गैरकानूनी नहीं माना जा सकता है।

2015 में, अदालत ने धन्नूलाल बनाम गणेशराम मामले में फैसला सुनाया कि लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले जोड़े को कानूनी रूप से विवाहित माना जाएगा यदि वे लंबे समय से एक साथ रह रहे हैं। अदालत ने यह भी कहा कि ऐसे रिश्ते में एक महिला अपने मृत साथी की संपत्ति की विरासत पाने की पात्र है। अदालत के फैसलों में यह भी कहा गया है कि लिव-इन रिलेशनशिप में पैदा हुए बच्चों को नाजायज नहीं माना जाएगा।

◾ लिव-इन रिलेशनशिप के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो इस तरह के कुछ कदम उठाए वो सब तो ठीक था लेकिन यह अब भी अस्पष्ट था कि ये विभिन्न अधिकार और लाभ समान-लिंग वाले जोड़ों (Same Sex Couple) पर कैसे लागू होंगे;

अब आप समझ रहे होंगे कि विवाह की मान्यता या गोद लेने की मान्यता प्राप्त करना LGBTQ समुदाय के लिए कितना आवश्यक हो गया था। और अब इसके लिए कानूनी लड़ाई लड़ना था;

समलैंगिक विवाह के लिए कानूनी लड़ाई (Legal battle for same sex marriage):

◾ एक समलैंगिक जोड़े, निकेश और सोनू ने 24 जनवरी 2020 को केरल उच्च न्यायालय में अपनी शादी को कानूनी मान्यता देने की मांग करते हुए एक याचिका दायर की। केरल उच्च न्यायालय के न्यायाधीश अनु शिवरामन ने 27 जनवरी 2020 को याचिका स्वीकार कर ली।

◾ चार यौन और लैंगिक अल्पसंख्यक व्यक्तियों, अभिजीत अय्यर मित्रा, गोपी शंकर, गीति थडानी और जी. ओर्वास ने 8 सितंबर 2020 को दिल्ली उच्च न्यायालय में विवाह को कानूनी मान्यता देने की मांग करते हुए एक याचिका दायर की।

◾ दिल्ली उच्च न्यायालय की दो-न्यायाधीश पीठ, जिसमें दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डी एन पटेल और न्यायमूर्ति प्रतीक जालान शामिल थे, ने 14 सितंबर 2020 को याचिका स्वीकार कर ली।

◾ एक समलैंगिक जोड़े, सुप्रिया चक्रवर्ती और अभय डांग ने 14 नवंबर 2022 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय में अपनी शादी को कानूनी मान्यता देने की मांग करते हुए एक याचिका दायर की।

◾ भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति हिमा कोहली की सर्वोच्च न्यायालय की दो-न्यायाधीश पीठ ने 25 नवंबर 2022 को एक अन्य समलैंगिक जोड़े, पार्थ फ़िरोज़ मेहरोत्रा और उदय राज आनंद के साथ याचिका स्वीकार कर ली।

◾ भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला की सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने उच्च न्यायालयों को नौ समान याचिकाओं (दिल्ली उच्च न्यायालय से आठ और केरल उच्च न्यायालय से एक) को साथ विचार करने के लिए उच्चतम न्यायालय में स्थानांतरित करने का निर्देश दिया।

◾ 15 मार्च 2023 को, सुप्रीम कोर्ट ने 52 यौन और लैंगिक अल्पसंख्यक व्यक्तियों द्वारा दायर 20 संबंधित याचिकाओं को भी स्वीकार कर लिया, जिनमें यौन और लैंगिक अल्पसंख्यक समुदायों के 17 जोड़े भी शामिल थे।

यहां यह याद रखिए कि अधिकांश याचिकाकर्ता धर्मनिरपेक्ष विवाह कानूनों जैसे कि विशेष विवाह अधिनियम और विदेशी विवाह अधिनियम इत्यादि के तहत विवाह के अधिकार की मान्यता चाहते थे।

याचिकाकर्ताओं में से कुछ हिंदू थे जो मानते थे कि हिंदू धर्म यौन और लैंगिक अल्पसंख्यक व्यक्तियों के बीच विवाह पर रोक नहीं लगाता है।

तो इस आधार पर उन्होंने तर्क दिया कि हिंदू विवाह अधिनियम से यौन और लैंगिक अल्पसंख्यक समुदायों के जोड़ों को बाहर करना उनके धर्म का पालन करने की उनकी स्वतंत्रता का उल्लंघन है।

◾ कई अधिवक्ताओं ने याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व किया, जबकि अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता उत्तरदाताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने अधिवक्ता अरुंधति काटजू और कनु अग्रवाल को क्रमशः याचिकाकर्ताओं और उत्तरदाताओं के लिए नोडल वकील नियुक्त किया।

और इन सभी मामलों को एक साथ मिलाकर एकल केस बनाया गया और उसका नाम हुआ Supriyo v. Union of India Case 2023। और अभी जो हाल ही में फैसला आया है वो इसी मामले के तहत आया है।

सुप्रियो बनाम भारत संघ मामला 2023 (Supriyo vs Union of India Case 2023)

इस मामले के तहत संविधान पीठ के समक्ष मौखिक दलीलें 18 अप्रैल 2023 को शुरू हुईं। पांच न्यायाधीशों वाली संविधान पीठ में भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति एस.के. कौल, न्यायमूर्ति एस.आर. भट्ट, न्यायमूर्ति हिमा कोहली और न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा शामिल थे।

◾ 18 अप्रैल 2023 को, सॉलिसिटर जनरल मेहता ने केंद्र सरकार की ओर से एक हलफनामा दायर किया, जिसमें उन्होंने तर्क दिया कि मामले में उठाए गए मुद्दे संसद और राज्य विधानसभाओं के अधिकार क्षेत्र में थे। उन्होंने कहा कि ये विषय सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र से बाहर हैं और उन्होंने बेंच से मामले को खारिज करने का आग्रह किया।

◾ वरिष्ठ अधिवक्ता रोहतगी और विश्वनाथन ने सॉलिसिटर जनरल मेहता द्वारा दी गई दलीलों का प्रतिवाद किया। उन्होंने अनुच्छेद 32 द्वारा गारंटीकृत सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुने जाने के अपने अधिकार पर दृढ़ता से जोर दिया। उन्होंने तर्क दिया कि जब मौलिक अधिकार दांव पर हों तो संसदीय कार्रवाई की प्रतीक्षा करना पर्याप्त नहीं है।

मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एसके कौल ने याचिकाकर्ताओं की दलीलों को पहले ही खारिज करने के सॉलिसिटर जनरल के प्रस्ताव को खारिज कर दिया।

याचिकाकर्ताओं और उत्तरदाताओं दोनों की ओर से कुल दस दिनों की सुनवाई के बाद, पीठ ने सुनवाई समाप्त की और 11 मई 2023 को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया।

इन 10 दिनों में कई मुद्दों पर चर्चा, नोक-झोंक एवं बहस हुई; जिसका सार आप नीचे देख सकते हैं; 

समान लिंग विवाह के पक्ष में दिया गया तर्क (Argument given in favor of same sex marriage);

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के समक्ष समलैंगिक विवाह की सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं ने दर्जनों मजबूत और सम्मोहक तर्क प्रस्तुत किए। ये तर्क समानता, मानवाधिकार, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, सामाजिक वैधता और कानूनी मान्यता से संबंधित मुद्दों पर केंद्रित थे।

1. समान-लिंग संबंधों की स्वीकृति (Acceptance of same-sex relationships): याचिकाकर्ता ने समानता और निष्पक्षता को बढ़ावा देने के लिए समान-लिंग संबंधों की आधिकारिक मान्यता पर जोर दिया। याचिककर्ताओं के इस बात को स्थापित करने की कोशिश की कि समान लिंग विवाह भी सामान्य विवाह की तरह ही है और इसे भी वही स्वीकृति मिलनी चाहिए जो कि सामान्य विवाह को मिलता है।

इसके अलावा याचिकाकर्ताओं का कहना है कि समलैंगिक विवाह पर प्रतिबंध एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन करता है।

2. विविध यौन रुझानों का सम्मान (respect for diverse sexual orientations): याचिकाकर्ताओं ने विविध यौन रुझानों की सामाजिक और सरकारी मान्यता की आवश्यकता पर बल दिया।

3. मानवाधिकारों का उल्लंघन (violation of human rights): प्रासंगिक उदाहरणों, मुद्दों और कानूनों के साथ, याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि विवाह कानूनों से यौन और लैंगिक अल्पसंख्यक समुदायों के जोड़ों को बाहर करना मौलिक अधिकार का उल्लंघन है

दरअसल सभी प्रमुख रिलीजन के लिए विवाह कानून है और उसी के हिसाब से विवाह होता है जैसे कि हिन्दू के लिए हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 है। इसी तरह से एक धर्म से दूसरे धर्म के बीच शादी के लिए विशेष विवाह अधिनियम 1954 बनाए गए हैं। लेकिन इन क़ानूनों में समलैंगिक विवाह के बारे में नहीं बताया गया है। इसीलिए LGBTQ समुदाय के लोगों का यह तर्क था कि इन अधिनियमों से हमारे मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है।

हालांकि सुप्रीम कोर्ट इस बात पर स्पष्ट थे कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 समानता के अधिकार की गारंटी देता है और कोई भी कानून जो किसी व्यक्ति के यौन अभिविन्यास और लिंग पहचान के आत्मनिर्णय की रक्षा करने में विफल रहता है, वह तर्कहीन, स्पष्ट रूप से मनमाना और अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19 भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है। सुप्रीम कोर्ट मानता है कि अनुच्छेद 19 में यौन अभिविन्यास और लिंग पहचान की पूर्ण अभिव्यक्ति शामिल है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है, जिसमें गरिमा, गोपनीयता और व्यक्तिगत स्वायत्तता शामिल है। सुप्रीम कोर्ट ने यौन और लैंगिक अल्पसंख्यक व्यक्तियों के लिए अनुच्छेद 21 द्वारा गारंटीकृत अधिकारों को मान्यता दी है।

4. पसंद की स्वतंत्रता (freedom of choice): याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि विवाह व्यक्तिगत पसंद का मामला होना चाहिए और सामाजिक या कानूनी बाधाओं से निर्धारित नहीं होना चाहिए।

5. कानूनी सुरक्षा (legal protection): उन्होंने विषमलैंगिक जोड़ों के समान वैधानिक सुरक्षा की आवश्यकता पर बल दिया। समान-लिंग वाले जोड़ों को विपरीत-लिंग वाले जोड़ों के समान कानूनी अधिकार और सुरक्षा मिलनी चाहिए।

याचिकाकर्ताओं ने जोर देकर कहा कि अदालत को एलजीबीटीक्यू+ व्यक्तियों के खिलाफ भेदभाव करने वाले कानूनों के लिए सख्त जांच मानक लागू करना चाहिए।

दरअसल यहां यह याद रखिए कि एलजीबीटी लोगों को भारतीय सशस्त्र बलों में खुले तौर पर सेवा देने पर प्रतिबंध है। दिसंबर 2018 के अंत में, संसद सदस्य जगदंबिका पाल (भाजपा) ने सेना अधिनियम 1950, नौसेना अधिनियम 1957 और वायु सेना अधिनियम 1950 में संशोधन करने के लिए भारतीय संसद में एक विधेयक पेश किया, जो एलजीबीटी लोगों को सशस्त्र बलों में सेवा करने की अनुमति देता, लेकिन लोकसभा में यह बिल रद्द हो गया।

6. गोद लेने का अधिकार (right to adopt): समलैंगिक जोड़ों को गोद लेने और परिवार बनाने के अधिकारों की वकालत की गई।

भारत में LGBTQ+ समुदाय को बच्चे गोद लेने का अधिकार नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि भारत में गोद लेने को नियंत्रित करने वाले दो प्राथमिक कानून, Hindu Adoption and Maintenance Act, 1956 (HAMA) और Juvenile Justice (Care and Protection of Children) Act, 2000 (JJ Act), स्पष्ट रूप से समान-लिंग वाले जोड़ों को गोद लेने की अनुमति नहीं देते हैं।

HAMA केवल एक हिंदू पुरुष को एकल माता-पिता के रूप में बच्चा गोद लेने की अनुमति देता है। एक हिंदू महिला केवल तभी बच्चा गोद ले सकती है जब उसका पति जीवित हो और गोद लेने के लिए सहमति दे।

JJ Act किसी भी भारतीय नागरिक को, जो कम से कम 25 वर्ष का है और उस बच्चे से कम से कम 21 वर्ष बड़ा है, जिसे वे गोद लेना चाहते हैं, एक बच्चा गोद लेने की अनुमति देता है, लेकिन यह स्पष्ट रूप से समान-लिंग वाले जोड़ों को गोद लेने की अनुमति नहीं देता है।

7. समान-लिंग विवाह बनाम विवाह संस्था: याचिकाकर्ताओं द्वारा इस तर्क का खंडन किया गया कि समान-लिंग विवाह विवाह की संस्था को कमजोर करेगा। उन्होंने सामाजिक वैधता की आवश्यकता पर जोर दिया, जो कानूनी मान्यता के माध्यम से आ सकती है।

8. अमान्य रूढ़िवादिता (Invalid orthodoxy): LGBTQ+ समुदाय के बारे में नकारात्मक रूढ़िवादिता को अमान्य करने की आवश्यकता पर तर्क दिया गया।

9. गरिमापूर्ण जीवन (dignified life): नवतेज जौहर मामले में फैसले को दोहराते हुए, याचिकाकर्ताओं ने गरिमापूर्ण जीवन के अपने उचित दावे को दोहराया। समलैंगिक विवाह को मान्यता न मिलना भेदभाव के समान है जो LBTQ+ जोड़ों की गरिमा की जड़ पर आघात करता है।

10. धारा 377 के खिलाफ: भारतीय दंड संहिता की धारा 377 पर फिर से विचार करने की आवश्यकता को स्पष्ट रूप से उठाया गया, यह तर्क देते हुए कि यह संविधान के मौलिक अधिकारों के विपरीत है।

कुल मिलाकर समलैंगिक विवाह (Same Sex Marriage) को मान्यता दिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई, उन सभी पहलुओं को छुआ गया जो की किसी तरह से इस मामले से संबन्धित था, यहां तक कि दूसरे देशों के उदाहरण भी दिए गए जैसे कि 32 देशों में समलैंगिक विवाह वैध है, तो ये भारत में क्यों नहीं हो सकता है।

हालांकि समलैंगिक विवाह (Same Sex Marriage) के विरुद्ध भी कई अकाट्य तर्क बेंच के समक्ष प्रस्तुत किए गए, जिनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार है;

समलैंगिक विवाह के विरुद्ध तर्क (arguments against Same Sex Marriage):

धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताएँ (Religious and cultural beliefs): धार्मिक और सांस्कृतिक समूहों के मान्यताओं के अनुसार विवाह केवल एक पुरुष और एक महिला के बीच ही होना चाहिए। इसके पीछे यह तर्क दिया गया कि विवाह की पारंपरिक परिभाषा को बदलना उनकी मान्यताओं और मूल्यों के मूलभूत सिद्धांतों के विरुद्ध होगा।

प्रजनन (Reproduction): एक बहुत ही महत्वपूर्ण तक यह दिया गया कि विवाह का प्राथमिक उद्देश्य प्रजनन है, और समान-लिंग वाले जोड़े जैविक बच्चे पैदा नहीं कर सकते इसीलिए समलैंगिक विवाह की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि यह प्राकृतिक व्यवस्था के खिलाफ है।

कानूनी मुद्दे (Legal Issues): ऐसी चिंताएं व्यक्त की गई कि समान-लिंग विवाह की अनुमति देने से कानूनी समस्याएं पैदा होंगी, जैसे विरासत, कर और संपत्ति के अधिकार के मुद्दे। क्योंकि अब तक जो भी सिविल कानून बने हैं उसे मुख्य रूप से स्त्री-पुरुष के नजरिए से बनाया गया है, उसमें LGBTQ समुदाय की कोई चर्चा नहीं है। ऐसे में समलैंगिक विवाह को समायोजित करने के लिए सभी कानूनों और विनियमों को बदलना बहुत कठिन होगा।

बच्चों को गोद लेने से संबंधित मुद्दे (Issues related to adoption of children): जब कोई समान लिंग का जोड़ा बच्चों को गोद लेता है, तो इससे बच्चे के भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक कल्याण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है, खासकर भारतीय समाज में जहां LGBTQ+ समुदाय की स्वीकृति सार्वभौमिक नहीं है।

शहरी अभिजात्यवाद (Urban elitism): सरकार ने अदालत के समक्ष तर्क दिया कि समलैंगिक विवाह की अवधारणा “सामाजिक स्वीकृति के उद्देश्य से केवल शहरी अभिजात्यवादी दृष्टिकोण” है। सरकार ने इसे स्पष्ट किया कि यौन और लैंगिक अल्पसंख्यक व्यक्तियों के बीच संबंध पश्चिमी प्रभाव के कारण है, LGBTQ या फिर समलैंगिक विवाह (Same Sex Marriage) भारतीय चिंतन या परंपरा नहीं है, ये पश्चिम से आयातित चीज़ है।

संसद के अधिकारक्षेत्र का अतिक्रमण: सरकार की ओर से कहा गया कि समलैंगिक विवाह (Same Sex Marriage) को मान्यता देना है या नहीं यह संसद का काम है न कि सुप्रीम कोर्ट का। ऐसे में अगर सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस तरह का निर्णय लिया जाता है तो फिर यह संसद के अधिकारक्षेत्र का उल्लंघन होगा। इत्यादि।

सुप्रीम कोर्ट का फैसला (Supreme Court judgement):

17 अक्टूबर 2023 को, पांच न्यायाधीशों वाली संविधान जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति एस.के. कौल, न्यायमूर्ति एस.आर. भट्ट, न्यायमूर्ति हिमा कोहली और न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा शामिल थे; ने फैसला सुनाया।

ज़्यादातर फैसला 3:2 से सुनाया गया और मुख्य रूप से छह बातों पर फैसला आया;

1) समलैंगिक विवाह (Same Sex Marriage) को कानूनी मान्यता नहीं: सुप्रीम कोर्ट ने 3:2 की सहमति से फैसला सुनाया कि समलैंगिक विवाह को वैध बनाना संसद का मामला है, न कि अदालतों का।

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि समलैंगिक लोगों को साथ रहने का अधिकार है और उसे प्रताड़ित नहीं किया जाना चाहिए।

2) विवाह मौलिक अधिकार नहीं है: सर्वोच्च न्यायालय ने सर्वसम्मति से माना कि भारत में विवाह करना मौलिक अधिकार नहीं है। सीजेआई ने कहा कि हालांकि संविधान स्पष्ट रूप से शादी करने के मौलिक अधिकार को मान्यता नहीं देता है, लेकिन जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार सहित कई संवैधानिक मूल्यों को शादी से मिलने वाले भौतिक लाभों से प्राप्त किया जा सकता है।

न्यायमूर्ति भट ने जोर देकर कहा कि विवाह एक सामाजिक संस्था है, जो राज्य से पहले से है। इस प्रकार, यह राज्य द्वारा प्रदत्त दर्जा नहीं है और विवाह का स्रोत राज्य के बाहर है।

उन्होंने कहा कि यह बाहरी स्रोत विवाह की सीमाओं को परिभाषित करता है। उन्होंने कहा, “इसका तात्पर्य यह है कि विवाह को विनियमित करने की राज्य की शक्ति विवाह को मौलिक अधिकार मानने के विचार के साथ सहज नहीं है।”

न्यायमूर्ति भट ने आगे कहा कि नागरिक विवाह या ऐसे किसी भी रिश्ते की मान्यता क़ानून के अभाव में मौजूद नहीं हो सकती।

न्यायमूर्ति नरसिम्हा भी न्यायमूर्ति भट से सहमत थे और कहा कि विवाह का अधिकार एक वैधानिक अधिकार था और यह कानूनी रूप से लागू करने योग्य प्रथागत प्रथा से उत्पन्न हुआ था।

उन्होंने कहा कि एक संस्था के रूप में विवाह संस्कृति, धर्म, रीति-रिवाजों और प्रथाओं से निर्धारित होता है। न्यायमूर्ति नरसिम्हा ने आगे कहा कि विवाह के लाभ, भले ही एक पूर्ण जीवन के लिए मौलिक हों, विवाह को मौलिक अधिकार नहीं बनाते हैं।

3) विशेष विवाह अधिनियम (Special Marriage Act) 1954 को खत्म नहीं किया जा सकता: जैसा कि हम जानते हैं कि विशेष विवाह अधिनियम 1954 में भारत के लोगों और विदेशों में रहने वाले सभी भारतीय नागरिकों के लिए नागरिक विवाह (civil marriage) का प्रावधान है, चाहे किसी भी पक्ष का धर्म या आस्था कुछ भी हो।

अगर समलैंगिक विवाह (Same Sex Marriage) को मान्यता देना है तो फिर इस अधिनियम को खत्म करना पड़ेगा या संशोधित करना पड़ेगा। याद रखिए कि याचिकाकर्ता के वकीलों की तरफ से यहां तक कहा गया कि विशेष विवाह अधिनियम में जो “स्त्री” और “पुरुष” शब्द का इस्तेमाल हुआ है उसे हटाकर “व्यक्ति (person)” किया जा सकता है, ताकि स्त्री-पुरुष का झंझट ही खत्म हो जाए;

मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने इसे खारिज करते हुए कहा कि विशेष विवाह अधिनियम विभिन्न जाति और विभिन्न धर्म के लोगों को शादी करने का अधिकार देने के लिए लाया गया था। अगर इस अधिनियम को इस आधार पर खत्म कर दिया जाता है कि इसमें समलैंगिकों को शादी की इजाजत नहीं दी गई है तो भारत आजादी के पहले के युग में चला जाएगा, जहां पर दो अलग-अलग धर्मों के लोगों के बीच शादी नहीं होना असंभव था।

विशेष विवाह अधिनियम, 1954 (Special Marriage Act 1954) क्या है? :
विशेष विवाह अधिनियम, 1954 (SMA) भारत में एक कानून है जो विभिन्न धर्मों या जातियों के लोगों के नागरिक विवाह के लिए एक कानूनी ढांचा प्रदान करता है। यह एक नागरिक विवाह (civil marriage) है जहां राज्य विवाह को मंजूरी देता है न कि समाज या धर्म।

SMA एक धर्मनिरपेक्ष कानून है जो सभी भारतीय नागरिकों के लिए खुला है, चाहे उनका धर्म, जाति या समुदाय कुछ भी हो। यह उन जोड़ों के लिए एक लोकप्रिय विकल्प है जो नागरिक समारोह में शादी करना चाहते हैं या जो पारंपरिक विवाह से जुड़े धार्मिक प्रतिबंधों से बचना चाहते हैं।

SMA के तहत शादी करने के लिए, जोड़ों को उस जिले के विवाह रजिस्ट्रार के साथ इच्छित विवाह का नोटिस दाखिल करना होगा जिसमें उनमें से एक रहता है। नोटिस को 30 दिनों के लिए प्रकाशित किया जाना चाहिए, इस दौरान विवाह पर कोई भी आपत्ति उठाई जा सकती है। यदि कोई आपत्ति नहीं है, तो निर्दिष्ट विवाह कार्यालय में विवाह संपन्न कराया जा सकता है।

SMA एक सरल और सीधा विवाह समारोह प्रदान करता है। इसके लिए किसी धार्मिक या जातिगत अनुष्ठान या समारोह की आवश्यकता नहीं है। जोड़े केवल विवाह रजिस्ट्रार और दो गवाहों के साथ एक साधारण समारोह का चयन कर सकते हैं, या वे दोस्तों और परिवार के साथ एक अधिक विस्तृत समारोह का आयोजन कर सकते हैं।

एसएमए एक महत्वपूर्ण कानून है जो व्यक्तियों को उनके धर्म या जाति की परवाह किए बिना अपनी पसंद के व्यक्ति से शादी करने के अधिकार की रक्षा करता है। इसने भारत में धर्मनिरपेक्षता और समानता को बढ़ावा देने में मदद की है।

Same Sex Marriage info Snippet

[व्यावहारिकता यही है कि सिर्फ एक कानून हटाकर या संशोधित करके समलैंगिक विवाह (Same Sex Marriage) को मान्यता नहीं दी जा सकती है, क्योंकि यहां उतराधिकार, विवाह क़ानूनों, एवं सामाजिक सुरक्षा इत्यादि से संबंधित दर्जनों कानून है जिसे बदलना होगा।

4) ट्रान्सजेंडर व्यक्ति को शादी का अधिकार: सभी पांच न्यायाधीशों ने सर्वसम्मति से माना कि विषमलैंगिक संबंधों (heterosexual relationships) में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को Personal Law सहित मौजूदा कानूनों के तहत शादी करने का अधिकार है जो उनकी शादी को विनियमित करते हैं।

सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि भारत में विवाह कानून मुख्य रूप से विषमलैंगिक संबंधों से उत्पन्न विवाहों की अनुमति देते हैं, जिन्हें एक “पुरुष” और एक “महिला”, एक “पति” और एक “पत्नी,” या “दूल्हा और एक दुल्हन” के रूप में वर्णित किया गया है।

ऐसी व्याख्याओं को प्रतिबंधित करना ट्रांसजेंडर व्यक्ति अधिनियम का खंडन होगा, जो स्पष्ट रूप से ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के खिलाफ भेदभाव को प्रतिबंधित करता है।

उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि किसी व्यक्ति की ट्रांसजेंडर पहचान उनकी लिंग पहचान से निर्धारित होती है, न कि उनके यौन रुझान से

उन्होंने यह भी कहा कि पुरुष या महिला के रूप में पहचाने जाने वाले इंटरसेक्स व्यक्तियों (intersex individuals) को भी व्यक्तिगत कानूनों सहित मौजूदा कानून के तहत शादी करने का अधिकार है।

5) सिविल यूनियन को रोका जाना (Prohibition of civil unions): दरअसल सिविल यूनियन एक कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त Union या Partnership है जिसके पास विवाह के समान अधिकार होता हैं। यह मूल रूप से उन न्यायक्षेत्रों में समान-लिंग वाले जोड़ों के लिए बनाया गया था जहां उन्हें कानूनी रूप से शादी करने की अनुमति नहीं थी।

समलैंगिक जोड़ों के लिए ‘सिविल यूनियन‘ की मान्यता एक ऐसा मुद्दा था जिस पर पीठ के भीतर कई असहमतियां उठीं। CJI डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एसके कौल ने समलैंगिक नागरिक संघों को मान्यता देने का आह्वान किया ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि समलैंगिक जोड़ों को विवाह से भौतिक लाभ मिल सके, लेकिन पीठ में अन्य तीन न्यायाधीशों ने एक अलग दृष्टिकोण अपनाया।

न्यायमूर्ति नरसिम्हा ने न्यायमूर्ति भट से सहमति व्यक्त करते हुए कहा कि यदि अदालत राज्य को एक नागरिक संघ को मान्यता देने का आदेश देती है, तो यह शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन होगा, जो भारतीय कानूनी प्रणाली का एक मूलभूत सिद्धांत है। नई कानूनी संरचना के निर्माण की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए अंततः इसे सरकार पर ही छोड़ दिया गया।

6) समलैंगिक जोड़े का गोद लेने का अधिकार (Same-sex couple’s right to adopt): एक अलग 3:2 के निर्णय में, सरकार को समान-लिंग वाले जोड़ों को गोद लेने की अनुमति देने का आदेश देने के खिलाफ फैसला सुनाया।

दरअसल पीठ के भीतर एक और मतभेद इस सवाल पर पैदा हुआ कि क्या समलैंगिक जोड़ों को बच्चे गोद लेने का अधिकार है। इसी प्रश्न की सुनवाई में 3:2 के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक जोड़ों को बच्चे गोद लेने के अधिकार से वंचित कर दिया।

हालाँकि, अदालत ने सर्वसम्मति से सरकार के इस सुझाव को स्वीकार कर लिया कि उसने एलजीबीटी लोगों के साथ होने वाले भेदभाव की जाँच के लिए कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति का गठन किया।

कुल मिलाकर, सरकार ने यौन और लैंगिक अल्पसंख्यक समुदायों के जोड़ों की शादी को मान्यता देने का कड़ा विरोध किया। हालांकि मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने सॉलिसिटर जनरल मेहता से कहा कि अगर आप समलैंगिक विवाह (Same Sex Marriage) को मान्यता नहीं देना चाहते हैं तो समान-लिंग वाले जोड़ों के लिए एक वैकल्पिक समाधान प्रदान करें।

सॉलिसिटर जनरल मेहता ने बेंच को बताया कि कैबिनेट सेक्रेटरी के तहत एक कमेटी बनाई जाएगी। पीठ ने कहा कि समिति को कई मंत्रालयों के साथ समन्वय की आवश्यकता होगी, और याचिकाकर्ताओं को मुद्दों की एक सूची प्रस्तुत करने का सुझाव दिया।

समापन टिप्पणी (Closing Remarks):

हमने विस्तार से समझा कि एलजीबीटीक्यू+ क्या है, क्यों हैं, कब से है और कैसे है। इनकी उपस्थिति अब नगण्य नहीं है बल्कि परिवार, समाज, कला, साहित्य एवं सोशल मीडिया इत्यादि सभी जगह पर इनको या इनके विचारधारा को देखा जा सकता है।

हमने समझा कि किस तरह से भारत में भी LGBTQ+ समुदाय ने अपनी भूमिका को पुष्ट किया है और विभिन्न प्रकार के सपोर्ट सिस्टम को भी हासिल किया है।

साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा धारा 377 को गैर-अपराध की श्रेणी में डाले जाने के बाद LGBTQ+ के लिए अपनी यौन इच्छाओं को खुल कर व्यक्त करने का मौका मिला है और इसी से उत्साहित होकर उन्होने समलैंगिक विवाह (Same Sex Marriage) को भी स्वीकृति दिलाना चाहा पर अभी के लिए वो हो नहीं पाया।

वैसे तो हमने विस्तार से समझा कि क्यों नहीं हो पाया लेकिन इसके कुछ अन्य पहलू भी है जिस पर चिंतन करना आवश्यक है।

दो धरों में बुद्धिजीवी बंटा हुआ, एक तो वो है जिसे कि विवाह की मान्यता चाहिए और दूसरा वो जो इसे स्वीकार करने को तैयार नहीं है। जो दूसरा धरा है आम तौर पर आप देखेंगे कि वो तृतीय लिंग के प्रति घृणा का भाव नही रखते हैं बल्कि जो चिंता होती है वो मुख्य रूप से दो-तीन फ्रंटों पर होती है;

1) लिंग भ्रम की स्थिति (gender confusion) – LGBTQ+ मुहिम और Wokeism ने मिलकर एक ऐसी स्थिति का निर्माण किया है जिसमें युवा वर्ग जो कि अभी-अभी हाइ स्कूल या कॉलेज गया है के मन में संदेह पैदा होता कि उसका लिंग क्या है। इनके द्वारा एक विचार दिया जाता है कि आपका Gender वो नहीं होता है जो कि भौतिक रूप से आप हैं बल्कि आपका Gender वो होता है जो आप अंदर से फील करते हैं।

इसे Gender Fluidity भी कहा जाता है। अब यहां पर समस्या ये आती है कि एक व्यक्ति समय-काल-परिस्थिति के हिसाब से अलग-अलग चीज़ें फील करता है। तो ऐसे में कोई व्यक्ति एक दिन महिला हो सकता है किसी दिन वो कह सकता है आज मैं स्त्री हूँ या फिर कुछ हूं ही नहीं।

अब सोच के देखिए कि किसी दिन आपका मन उत्तेजित हो जाता है और महिला टॉइलेट जाने की सोचते हैं और ये कहकर आप महिला टॉइलेट चले जाते हैं कि आज तो मैं खुद को स्त्री फील कर रहा हूं। कितनी अजीब बात है न। अगर एक पुरुष खुद को स्त्री मान लेगा तो बच्चे थोड़ी न पैदा करने लग जाएगा।

ऐसा नहीं है कि LGBTQ+ समुदाय इस बात से अंजान है इसीलिए वो एक और थियरि ले कर आते हैं कि स्त्री, पुरुष जैसे जितने भी सर्वनाम है उसको खत्म करके सबको बस व्यक्ति (Person) कहकर संबोधित करो या फिर He, She के बजाय They का इस्तेमाल करो।

सुप्रियो मामले की सुनवाई के दौरान जस्टिस चंद्रचूड़ ने भी यह कहा कि “There is no Absolute distinction between Male and Female.” यानि कि पुरुष या महिला की कोई पूर्ण अवधारणा नहीं है।

अब अगर सोचें तो समझ में आता है कि इससे तो माँ-बाप की अवधारणा खत्म हो जाएगी, रिश्ते खत्म हो जाएँगे या परिवार, समाज एवं राज्य का विघटन हो जाएगा।

इसे एक उदाहरण से समझिए कि अभी हाल ही सरकार ने संसद में महिलाओं को आरक्षण दिया है। अगर महिला या पुरुष की कोई पूर्ण अवधारणा नहीं है तो फिर आरक्षण की क्या जरूरत है, महिला सशक्तिकरण की क्या जरूरत है।

2) सेक्स अन्वेषन का भ्रम (illusion of sex exploration): LGBTQ+ समुदाय या फिर Woke Mindset के बुद्धिजीवी अक्सर इस बात को दोहराते हैं कि सेक्स एक्सप्लोरेशन किसी भी इंसान का एक मौलिक अधिकार है।

जबकि मैथुन प्रक्रिया में हिस्सा ले चुके लगभग सभी व्यक्ति इस बात से परिचित होता है कि सेक्स में एक्सप्लोरेशन जैसा कुछ नहीं होता है। चाहे कोई पुरुष कितने ही योनि में लिंग प्रवेशन क्यों न करे उसका कामुक अनुभव (Sensual Experience) हर बार सेम ही होता है, क्योंकि शरीर की बयोलॉजी ही ऐसी है कि हर बार वो एक ही प्रकार का हार्मोन निसृत करता है।

इसी भ्रम से बचने हेतु संयम का सिद्धांत अपनाया गया है जिसके तहत इस विचार को प्राथमिकता दी जाती है कि हमें काम पर (या अपने इंद्रियों पर) विजय पाना है। और इन्ही सब कारणों से विवाह संस्था को सिर्फ मैथुन तक न सीमित करके “आत्मा का जुड़ाव” तक विस्तार दिया गया है।

ऐसे में यह सवाल उठना लाज़मी है कि Same Sex Marriage जिसके मूल में मूलतः मैथुन है क्या उसको विवाह का दर्जा दिया जाना चाहिए, जबकि आप कोई नए अस्तित्व का निर्माण भी नहीं कर रहें है।

3) जांचा-परखा तरीका (tried and tested method): जो सामान्य विवाह है वो हजारों सालों के दरम्यान विकसित हुआ है उसमें से कमियाँ दूर होती गई है। ऐसा नही है कि ये परिपूर्ण है लेकिन यह जांचा-परखा तरीका है जिसका अपना एक औचित्य रहा है।

जबकि same sex marriage में कोई स्थिरता नहीं है, कोई परंपरा नहीं है, रीति-रिवाजें नहीं है, वो परिवार नहीं है, वो ममत्व-वो वात्सल्य प्रेम नहीं है। आज यह कुछ और होता है कल कुछ और हो जाता है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या यह मौजूदा समाज या परिवार व्यवस्था को ध्वस्त नहीं कर देगा।

4) समलैंगिक विवाह और बीमारियाँ (Same Sex Marriage & Diseases): चूंकि समलैंगिक जोड़े सामान्य मैथुन प्रक्रिया न अपना कर के गुदा मैथुन या मुख मैथुन पर निर्भर करते हैं ऐसे में कुछ ऐसी बीमारियाँ हैं जो LGBTQ+ आबादी में अधिक आम हैं, जैसे एचआईवी/एड्स, यौन संचारित संक्रमण (एसटीआई), और कुछ प्रकार के कैंसर।

रोग नियंत्रण और रोकथाम केंद्र (सीडीसी) के अनुसार, समलैंगिक और उभयलिंगी पुरुषों में विषमलैंगिक पुरुषों की तुलना में एचआईवी होने की संभावना 25 गुना अधिक है। समलैंगिक और उभयलिंगी पुरुषों में सिफलिस, गोनोरिया और क्लैमाइडिया होने की अधिक संभावना है।

विषमलैंगिक महिलाओं (heterosexual women) की तुलना में समलैंगिक और उभयलिंगी महिलाओं में ह्यूमन पैपिलोमावायरस (एचपीवी) और सर्वाइकल कैंसर होने की संभावना अधिक होती है। ट्रांसजेंडर महिलाओं में भी एचआईवी और एसटीआई होने की अधिक संभावना है।

हालांकि LGBTQ समुदाय आमतौर पर इस तथ्य को मानने से इंकार करते हैं लेकिन इस मामले में कई ठोस अध्ययन उपलब्ध है, जो इस बात की पुष्टि करते हैं।

उपरोक्त कारण बहुत से कारणों से में बस कुछ है जिसके आधार पर इसका विरोध किया जाता है। खासकर के भारतीय परिपेक्ष्य में।

निष्कर्षत: इस मामले में एक अच्छा अप्रोच यह हो सकता है कि सामंजस्य बैठा कर काम किया जाये। अगर स्थापित व्यवस्था बेहतर है तो Progressiveness के नाम पर उसे बदलने की क्या आवश्यकता है, पुरानी व्यवस्था को अपनाते हुए भी एक नई व्यवस्था बनाई जा सकती है।

अगर सरकार या न्यायालय को Same Sex Marriage को लागू करना भी है तो उसे थोपने की बजाय समाज को वक्त देना उचित है ताकि वो उसे स्वाभाविक रूप से अपना सके। क्योंकि संस्कृति एवं विरासत भी हमारे लिए उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि प्रगतिशीलता या विकासवाद।

Same Sex Marriage and Homosexuality Related Facts:

◾ 1994 में हिजड़ों को कानूनी तौर पर तीसरे लिंग के रूप में मतदान का अधिकार दिया गया था।

◾ 15 अप्रैल 2014 को, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने ट्रांसजेंडर लोगों को सामाजिक और आर्थिक रूप से दबा हुआ वर्ग घोषित किया, जो शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण के हकदार थे, और केंद्र और राज्य सरकारों को उनके लिए कल्याणकारी योजनाएं बनाने का भी निर्देश दिया।

न्यायालय ने फैसला सुनाया कि ट्रांसजेंडर लोगों को किसी भी प्रकार की सर्जरी के बिना अपना लिंग बदलने का मौलिक संवैधानिक अधिकार है, और केंद्र सरकार से ट्रांसजेंडर लोगों के लिए समान उपचार सुनिश्चित करने का आह्वान किया।

न्यायालय ने यह भी फैसला सुनाया कि भारतीय संविधान आधिकारिक दस्तावेजों पर तीसरे लिंग की पहचान को अनिवार्य बनाता है, और अनुच्छेद 15 लिंग पहचान के आधार पर भेदभाव पर प्रतिबंध लगाता है।

फैसले के आलोक में, मतदाता पहचान पत्र, पासपोर्ट और बैंक फॉर्म जैसे सरकारी दस्तावेजों ने पुरुष (M) और महिला (F) के साथ एक तीसरे लिंग का विकल्प प्रदान करना शुरू कर दिया है, जिसे आमतौर पर “Other” (O), “third gender” (TG) or “transgender” (T) के रूप में नामित किया जाता है।

◾ शबनम मौसी सार्वजनिक पद पर चुनी जाने वाली पहली ट्रांसजेंडर भारतीय हैं। वह 1998 से 2003 तक मध्य प्रदेश राज्य विधान सभा की निर्वाचित सदस्य थीं।

◾ भारत में इंटरसेक्स मुद्दों को अक्सर तीसरे लिंग के मुद्दों के रूप में देखा जा सकता है। भारत में सबसे प्रसिद्ध तृतीय लिंग समूह हिजड़े हैं।

◾ संगम साहित्य में पेडी शब्द का उपयोग इंटरसेक्स में जन्मे लोगों के लिए किया गया है।

◾ कथित तौर पर आईआईटी, आईआईएससी, डीयू और आईआईएम जैसे शीर्ष विश्वविद्यालयों में एलजीबीटी लोगों के प्रति स्वीकार्यता कहीं अधिक है। 2015 में आईआईटी दिल्ली में आयोजित एक सर्वेक्षण के अनुसार, 72% उत्तरदाताओं ने सहमति व्यक्त की कि “समलैंगिक होना विषमलैंगिक होने की तरह सामान्य है”।

कई संस्थानों के अपने एलजीबीटी क्लब हैं, जैसे आईआईटी बॉम्बे में साथी, आईआईटी दिल्ली में इंद्रधनु, आईआईटी खड़गपुर में अंबर, आईआईटी कानपुर में उन्मुक्त, आईआईएसईआर पुणे में सतरंगी, बिट्स पिलानी में एंकर, हिंदू कॉलेज में एचसीक्यूसी इत्यादि।

◾ प्यू रिसर्च सेंटर के आधार पर समलैंगिक विवाह (2023) पर जनता की राय;

Strongly favor (28%)
Somewhat favor (25%)
Not sure (4%)
Somewhat oppose (12%)
Strongly oppose (31%)

Same Sex Marriage and Homosexuality FAQs

Q. समलैंगिक और विषमलैंगिक में क्या अंतर है (What is the difference between homosexual and heterosexual)?

समलैंगिक और विषमलैंगिक शब्द किसी व्यक्ति के यौन रुझान का वर्णन करने के लिए उपयोग किए जाते हैं, जो उस लिंग को संदर्भित करता है जिसके प्रति व्यक्ति रोमांटिक, भावनात्मक और यौन रूप से आकर्षित होता है। दोनों के बीच मुख्य अंतर उन व्यक्तियों के लिंग में निहित है जिनसे कोई व्यक्ति आकर्षित होता है:

समलैंगिक (homosexual)विषमलैंगिक (heterosexual)
समलैंगिकता एक यौन रुझान को संदर्भित करती है जिसमें एक व्यक्ति मुख्य रूप से या विशेष रूप से एक ही लिंग के व्यक्तियों के प्रति आकर्षित होता है। दूसरे शब्दों में, एक समलैंगिक व्यक्ति अपने ही लिंग के लोगों के प्रति आकर्षित होता है।विषमलैंगिकता एक यौन अभिविन्यास है जिसमें एक व्यक्ति मुख्य रूप से या विशेष रूप से विपरीत लिंग के व्यक्तियों के प्रति आकर्षित होता है। इस मामले में, एक विषमलैंगिक व्यक्ति एक अलग लिंग के लोगों के प्रति आकर्षित होता है।
जो पुरुष यौन और रोमांटिक रूप से दूसरे पुरुषों के प्रति आकर्षित होता है, उसे आमतौर पर समलैंगिक कहा जाता है।जो पुरुष महिलाओं के प्रति आकर्षित होता है उसे विषमलैंगिक माना जाता है।
एक महिला जो अन्य महिलाओं के प्रति यौन और रोमांटिक रूप से आकर्षित होती है उसे आमतौर पर समलैंगिक कहा जाता है।जो महिला पुरुषों के प्रति आकर्षित होती है उसे विषमलैंगिक भी माना जाता है।
समलैंगिकता मानव कामुकता का एक रूप है, और जो व्यक्ति समलैंगिक के रूप में पहचान करते हैं उसे LGBTQIA+ कहा जाता है।विषमलैंगिकता सबसे आम यौन रुझान है और इसे अक्सर “स्ट्रेट” कहा जाता है।
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Q. सिविल यूनियन (Civil Union) क्या है?

सिविल यूनियन एक कानूनी रूप से मान्यता प्राप्त Union या Partnership है जिसके पास विवाह के समान अधिकार होता हैं। यह मूल रूप से उन न्यायक्षेत्रों में समान-लिंग वाले जोड़ों के लिए बनाया गया था जहां उन्हें कानूनी रूप से शादी करने की अनुमति नहीं थी।

सिविल यूनियन या नागरिक संघ दो लोगों के बीच एक कानूनी संबंध है जो विवाह के समान है। यह विवाह के समान कई अधिकार और लाभ प्रदान करता है, जैसे संयुक्त कर रिटर्न दाखिल करने, बच्चों को गोद लेने और एक दूसरे से संपत्ति विरासत में लेने का अधिकार। हालाँकि, नागरिक संघों को आमतौर पर धार्मिक संस्थानों द्वारा विवाह के रूप में मान्यता नहीं दी जाती है।

नागरिक संघों का निर्माण उन समलैंगिक जोड़ों को कानूनी मान्यता प्रदान करने के लिए किया गया था जो शादी करने में सक्षम नहीं थे। कई देशों में, जिनमें समलैंगिक विवाह (Same Sex Marriage) कानूनी नहीं था। वहां नागरिक संघों ने समान-लिंग वाले जोड़ों को विवाहित जोड़ों के समान कानूनी अधिकार और लाभ प्राप्त करने का एक तरीका प्रदान किया, भले ही उनके विवाह को उनके धर्म द्वारा मान्यता प्राप्त न हो।

भले ही समलैंगिक विवाह अब कई देशों में कानूनी है, नागरिक संघ अभी भी उन जोड़ों के लिए एक विकल्प के रूप में उपलब्ध हैं जो धार्मिक या अन्य कारणों से शादी नहीं करना चाहते हैं। सिविल यूनियन उन जोड़ों के लिए भी एक विकल्प हो सकता है जो शादी करने के लिए तैयार नहीं हैं लेकिन फिर भी अपने रिश्ते के लिए कुछ कानूनी सुरक्षा चाहते हैं।

Q. सिविल यूनियन और विवाह के बीच क्या अंतर है?

नागरिक संघ और विवाह के बीच मुख्य अंतर यह है कि विवाह को आमतौर पर राज्य और धार्मिक संस्थानों दोनों द्वारा मान्यता प्राप्त होती है, जबकि नागरिक संघ को आमतौर पर केवल राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त होती है। इसका मतलब यह है कि नागरिक संघ में जोड़े किसी धार्मिक समारोह में शादी करने में सक्षम नहीं हो सकते हैं।

एक और अंतर यह है कि नागरिक संघों को सभी देशों में मान्यता नहीं दी जा सकती है। इसका मतलब यह है कि नागरिक संघ में जोड़ों को दूसरे देशों की यात्रा करते समय विवाहित जोड़ों के समान अधिकार और लाभ नहीं मिल सकते हैं।

इसके अलावा, नागरिक संघों और विवाहों के बीच कुछ अन्य अंतर भी हो सकते हैं, जो उस क्षेत्राधिकार के विशिष्ट कानूनों पर निर्भर करता है जिसमें जोड़ा रहता है। उदाहरण के लिए, कुछ न्यायालयों में, नागरिक संघ समान-लिंग वाले जोड़ों के लिए उपलब्ध नहीं हो सकते हैं, जबकि अन्य न्यायालयों में, वे समान-लिंग और विपरीत-लिंग वाले जोड़ों दोनों के लिए उपलब्ध हो सकते हैं।

CharacteristicCivil unionMarriage
Recognized by stateYesYes
Recognized by religious institutionsTypically notTypically yes
Available to same-sex couplesVaries depending on jurisdictionVaries depending on jurisdiction
Rights and benefitsSimilar to marriage, but may vary depending on jurisdictionSimilar to civil union, but may vary depending on jurisdiction

तो यही है Same Sex Marriage (या समलैंगिक विवाह) और उससे जुड़े विवाद; उम्मीद है आपको समझ में आया होगा।

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भारत पर आज़ादी पूर्व के घटनाओं का प्रभाव (India : An Outcome of Pre independence Events)
संविधान की बेसिक्स (Basics of the Constitution)
References :-
https://www.anic.org.au/wp-content/uploads/2018/03/Islams-Clear-Position-on-Homosexuality.pdf
https://en.wikipedia.org/wiki/LGBT_history#South_Asia
https://en.wikipedia.org/wiki/Section_377#India
https://www.indiatoday.in/law/story/same-sex-marriage-what-the-petitioners-seeking-legal-status-argued-before-supreme-court
https://www.outlookindia.com/national/explained-what-are-the-arguments-for-same-sex-marriages-in-supreme-court
https://en.wikipedia.org/wiki/Supriyo_v._Union_of_India#Preliminary_hearings
https://www.drishtiias.com/daily-updates/daily-news-analysis/same-sex-marriage-in-india
https://en.wikipedia.org/wiki/Civil_union
https://en.wikipedia.org/wiki/Recognition_of_same-sex_unions_in_India#Background
https://en.wikipedia.org/wiki/Section_377#2018_Navtej_Singh_Johar_v._Union_of_India
https://en.wikipedia.org/wiki/Homosexuality_in_India#Court_proceedings_and_recent_political_legislation
https://en.wikipedia.org/wiki/LGBT_rights_in_India
https://www.livelaw.in/tags/same-sex-marriage
https://www.livelaw.in/top-stories/marriage-equality-case-key-highlights-from-the-landmark-hearing-before-supreme-court
https://en.wikipedia.org/wiki/Same-sex_marriage#Issues
https://en.wikipedia.org/wiki/Homosexuality_and_religion
◾ https://www.indiacode.nic.in/show-data?actid=AC_CEN_5_23_00037_186045_1523266765688&orderno=434
Supreme court Judgement Pdf
https://www.youtube.com/watch?v=1S6zI749J5w&list=LL&index=1&t=1756s&pp=gAQBiAQB
https://www.youtube.com/watch?v=R2qSgTAwEaI
इसे तैयार करने में हमने कई विचार या तथ्य ढेरों अलग-अलग स्रोतों से लिए हैं जैसे कि दैनिक जागरण समाचार पत्र से, यूट्यूब पर उपलब्ध विभिन्न वक्ताओं के स्पीच से, इत्यादि। साथ ही इसमें मेरा भी इनपुट शामिल है।
Same Sex Marriage (समलैंगिक विवाह) Reference List

Note – Same Sex Marriage से जुड़ी चीज़ें जो समय के साथ घटित होगी, इस लेख को भी अपडेट कर दिया जाएगा। सवाल-जवाब के लिए टेलीग्राम जॉइन करें; टेलीग्राम पर जाकर सर्च करे – @upscandpcsofficial